हे मां तुम ही प्राण आधार हो
तुम ही भूतल तुम ही शिखर हो |
सत्य सनातन सतत सचेतन ,
परा प्रकृति मां, तुम परमेश्वर |
नित्य तुम्हीं, आनन्दमयी तुम,
तुममें स्थापित हैं जगदीश्वर |
अगम अपार अनंत अगोचर,
ओंकार का तुम ही प्रथम स्वर,
परम शान्ति चिर मौन तुम्ही हो
तुम अप्राप्य सुन्दरतम सुन्दर |
प्रेम सुमन का पराग तुम हो,
तपोयज्ञ की आत्म आग हो|
अणु अणु में है अंश तुम्हारा,
परम विषय तुम परम राग हो |
अर्पण करके तुझको जीवन
धन्य हुआ है मेरा कण कण,
यही प्रार्थना हे जननी मां
धरती बने स्वर्गमय पावन|
*
120.
महासरस्वती
परम शिल्पी पूर्णता को गढ़ रहीं
अणु-अणु को जोड़कर जो विश्व रचना कर रहीं
मंथर, अपार धैर्य की वह स्वामिनी
निर्दोष उनका कृत्य जिसकी पूर्णता ने जग रचा
एवं जगत की वस्तुएं,
प्रत्येक अद्भुत आकृति
दिव्य कल्पना की छबि
सावधानी से जड़ा गहना कोई
उनकी दृष्टि है अचूक, अंगुलियां जादू भरी
पूरी प्रत्येक वस्तु पे उनकी पकड़।
जड़ तत्व की कठोरता को दें झुका
मानो वह अपने स्वामी का करता नमन।
वे हमारी दिव्यता जो बढ़ रही
जो सुनिश्चित भाग्य सी
अधिकार में लेती हुईं
जीवन मनुज का शनै-शनै
गढ़ रहीं अपने सकल संकल्प से
पात्र अथवा यंत्र अथवा देह जो धारण करे
दिव्य मां की चेतना, शक्ति व आनंद को।
*
121.
महालक्ष्मी
आनंदमयी मां –
प्रेम-शक्ति से सूरज-तारे घुमा रहीं
वे ही तो उल्लास- हर्ष जो सक्रिय करतीं ह्रद ग्रंथी को
वे ही तो सौंदर्य आत्महर्षित करतीं जो इंद्रिय जगत को
उनमें ही संपूर्ण सत्य का सार – अर्थ है।
आई हैं वे उतर निकट आनंद- रिक्त मानवता में
आकर्षण के पाश बांधकर खींच रहीं वे हमे हमारी दुर्बलता में भी।
दुख पीड़ा से भरे मनुज के जग को आनंद धाम में रूपांतर करती उनकी दीप्तिमान मुस्कान।
हमे ज्ञात भी ना हो पाता कब हम लांघ गए अपनी दुर्बलता।
लावण्यमय उनके स्वरूप ध्यान की आतुरता में,
उनके अदभुद चरण – कमल के चुम्बन को
जो उषा को खींच लिए आते हैं
हे हृदय चलो अब शीघ्र उन्ही का स्वागत करने ताकि वे मुड़ ना जाएं।
बल पूर्वक नहीं प्रवेश करेंगी
संकोच भरी प्यारी आराध्या, हमारी माता।
*
122.
माहेश्वरी
शांत, विशाल, अनंत में स्थापित
दूर हमारे छोटे पार्थिव जग से,
किंतु सभी के ऊपर अपनी दृष्टि झुकाए
हाथ सुरक्षा हेतु तत्पर।
हे ज्योतिर्मय दिव्य प्रभा की जननी माता,
सकल ज्ञान ही जिनसे उपजा,
प्रज्ञा के सर्वोच्च शिखर सिंहासन स्थापित
सम – दृष्टि से, शांत भाव से,
मानवता की अंधकारमय मृत दशा पर
सौम्य कृपा की वर्षा करतीं,
काल – चक्र के अविरल क्रम से
उसको अपनी ओर तुम्ही तो खींच रही हो।
उनकी उपस्थिति वह शक्ति
जो काल – गति को आज्ञा देती
वह परम कृपा जो सभी पाश से मुक्ति देती।
*
123..
महाकाली
सभी आवरण कर विदीर्ण
वह कूद पड़ी हैं रण में आगे
भीषण समर – भूमि के अंदर
करतीं वह नेतृत्व हमारा
योद्धा दुर्गम, ज्वाल खड़ग
ओर गदा भयंकर
कांप रहा है युद्ध क्षेत्र उनके निनाद से
तत्पर सदैव अवरोध मिटाने
क्षण भर में निर्मूल कर रहीं
नहीं दया दौर्बल्य हृदय पर
उनका पथ हे तीव्र गति से
सीधे अपना लक्ष्य भेदना
तत्क्षण विजय उन्ही से होती।
हे माता विकराल कराली झोंक रही संताने अपनी महा – ज्वाल में
यज्ञाग्निमें पाप – पंक जल जाने को शीघ्र
और स्वर्णमय होकर , उनके तीव्र आनंद का वेग वहन कर
उनके पदतल असुर शीश का मर्दन करके
द्वार खोलतीं मृत्य लोक में धाराएं अमृत की ।
Affectionately,
Alok Da